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Subhash Chandra Bose Biography एक ऐसे क्रांतिकारी नेता और स्वतंत्रता सेनानी जिन्होंने अपने करिश्माई नेतृत्व से अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया। उनका प्रसिद्ध नारा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ ने देशभर के लोगों को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एकजुट किया और यह विश्वास भी दिलाया कि भारत गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर रहेगा। Subhash Chandra Bose का देश के लिए दिया गया अमूल्य योगदान हर भारतवासी के दिल में एक अमिट छाप छोड़ गया है। उनका जीवन आज भी देशभक्ति, साहस और बलिदान का प्रतीक बना हुआ है।
Image Credit: “Subash Chandra Bose” by Yukantanukaduka is licensed under CC BY-SA 4.0
महान नेता का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा – Subhash Chandra Bose Biography
23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक शहर में सुभाष चंद्र बोस का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती देवी था। वे अपने 14 भाई-बहनों में से नौवें स्थान पर थे। बचपन से ही उनके घर का वातावरण देशभक्ति से भरा हुआ था, जिसने उनके मन में देश सेवा की भावना को गहराई से जगा दिया।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रवेंसशॉ कॉलेजिएट स्कूल से प्राप्त की। उनके पिता जानकीनाथ बोस पहले एक सरकारी वकील थे, लेकिन बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी।
सुभाष चंद्र बोस ने वर्ष 1913 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। वहाँ एक विवाद के दौरान उन्होंने अपने साथियों का समर्थन किया, जिसके कारण कॉलेज प्रशासन ने उन्हें एक वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया। बाद में वे स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिल हुए, जहाँ से उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातक (B.A.) की डिग्री प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।
इसके बाद वे इंग्लैंड गए और इंडियन सिविल सर्विस (ICS) की परीक्षा दी, जिसमें उन्होंने चौथा स्थान प्राप्त किया। लेकिन देश की दुर्दशा देखकर उन्होंने इस नौकरी को स्वीकार नहीं किया और त्यागपत्र देकर भारत लौट आए। स्वदेश वापसी के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए और देश की स्वतंत्रता के लिए सक्रिय रूप से कार्य करने लगे।
राजनीति में जोशीला आरंभ – Subhash Chandra Bose Biography
1921 में इंडियन सिविल सर्विस से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चंद्र बोस भारत लौटे। वापसी के बाद उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़कर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उस समय कोलकाता के महापौर और प्रमुख नेता चितरंजन दास को उन्होंने अपना राजनीतिक गुरु मान लिया।
भारत लौटने पर बोस ने मुंबई में महात्मा गांधी से मुलाकात की, लेकिन जल्द ही वे कोलकाता लौट गए क्योंकि उस समय देश में असहयोग आंदोलन चरम पर था। सुभाष चंद्र बोस ने भी इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और चितरंजन दास के साथ मिलकर आंदोलन को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कुछ ही समय में, उनकी प्रभावशाली भाषण शैली, देशभक्ति की भावना और युवाओं के बीच लोकप्रियता ने उन्हें एक उभरते हुए नेता के रूप में स्थापित कर दिया। कांग्रेस के अन्य नेताओं से वे अलग पहचान बनाने लगे।
हालाँकि, बोस को यह महसूस होने लगा था कि केवल अहिंसा का मार्ग अपनाकर देश को स्वतंत्र नहीं किया जा सकता। उनका मानना था कि अंग्रेजों को भारत से बाहर करने के लिए सशस्त्र संघर्ष का रास्ता भी अपनाना होगा।
इन्हीं मतभेदों के चलते महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस के बीच वैचारिक दूरी बढ़ती गई। अंततः 1939 में इन असहमति के कारण सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा।
फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना और कांग्रेस से मतभेद – Subhash Chandra Bose Biography
महात्मा गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के विपरीत, सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए केवल अहिंसा पर्याप्त नहीं है। उनके अनुसार, अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए सशस्त्र संघर्ष भी ज़रूरी है।
इन्हीं वैचारिक मतभेदों के चलते गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस के बीच दूरी बढ़ती गई। अंततः 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
उन्होंने कहा कि शांतिपूर्ण संवाद से आज़ादी पाना कठिन है, इसलिए अब हमें बलिदान और संघर्ष का मार्ग अपनाना होगा। इसी विचारधारा के साथ उन्होंने 3 मई 1939 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव में एक नए राजनीतिक संगठन ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की। यह संगठन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए समर्पित था।
जल्द ही बड़ी संख्या में युवा इस आंदोलन से जुड़ने लगे। जून 1940 में नागपुर में फॉरवर्ड ब्लॉक का पहला अधिवेशन हुआ, जहाँ सर्वसम्मति से सुभाष चंद्र बोस को इसका अध्यक्ष चुना गया।
हिटलर, जापान और अन्य देशों की यात्रा – Subhash Chandra Bose Biography
दिसंबर 1940 में सुभाष चंद्र बोस को गिरफ्तार कर कोलकाता की जेल में डाल दिया गया। जेल में बंद होने के बाद उन्होंने एक सप्ताह तक भूख हड़ताल की, जिससे उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ने लगा। उनकी बिगड़ती हालत से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल से निकालकर उनके घर में नजरबंद कर दिया।
सुभाष चंद्र बोस का शुरू से ही यह मानना था कि अंग्रेजी हुकूमत केवल अहिंसा के मार्ग से नहीं जाएगी। इसी सोच के तहत उन्होंने सशस्त्र आंदोलन खड़ा करने का निर्णय लिया। उन्होंने विभिन्न देशों से मदद लेने की योजना बनाई ताकि आज़ादी के आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिल सके।
वर्ष 1941 में सुभाष चंद्र बोस ब्रिटिश सरकार को चकमा देने में सफल रहे। पठान के वेश में वे पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान और फिर काबुल पहुँचे। इसके बाद वे काबुल से होते हुए मास्को (रूस की राजधानी) पहुँचे और वहाँ से बर्लिन (जर्मनी) गए, जहाँ उनकी मुलाकात एडोल्फ हिटलर से हुई।
उन्होंने हिटलर से अंग्रेजों के खिलाफ सहयोग मांगा।बाद में सुभाष चंद्र बोस जापान की यात्रा पर गए, जहाँ उन्होंने आज़ाद हिंद फौज की कमान संभाली और भारत की आज़ादी के लिए निर्णायक कदम उठाए।

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आज़ाद हिंद फौज का गठन और भारत की ओर कूच – Subhash Chandra Bose Biography
1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कैप्टन मोहन सिंह ने जापान की सहायता से आज़ाद हिंद फौज (Indian National Army – INA) की नींव रखी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना था।
यह फौज तब पूरी तरह सक्रिय हुई जब 5 जुलाई 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस को इसकी कमान सौंपी गई। नेताजी ने सैन्य टुकड़ी से मुलाकात कर उन्हें प्रेरित किया और प्रसिद्ध नारा दिया:
“दिल्ली चलो!”
यह नारा स्वतंत्रता संग्राम में एक नई चेतना और जोश लेकर आया।
इसके साथ ही उनका दूसरा ऐतिहासिक नारा:
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।”
ने युवाओं के दिलों में देशभक्ति की ज्वाला भड़का दी। इस नारे ने फौजियों में बलिदान की भावना को और मज़बूत किया।
नेताजी ने अपने सैनिकों से कहा:
“हो सकता है हम में से कई जीवित न रहें, लेकिन इस लड़ाई में मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा। हम भारत को आज़ाद कराकर ही दम लेंगे।”
इस अभियान में प्रवासी भारतीयों ने भी आर्थिक और भावनात्मक समर्थन दिया। आज़ाद हिंद फौज में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की भी भागीदारी रही। नेताजी ने डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन को महिला टुकड़ी की कमांडर बनाया।
फौज में अधिकतर वे भारतीय सैनिक थे जो अंग्रेजों के साथ युद्ध में कैद हुए थे। पूरी योजना के तहत, 4 फरवरी 1944 को लगभग 45 से 50 हजार सैनिकों के साथ आज़ाद हिंद फौज ने भारत की ओर कूच किया।
शुरुआत में फौज को बर्मा (अब म्यांमार) और इम्फाल के मोर्चों पर सफलता मिली, लेकिन बाद में उन्हें गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा:
गोला-बारूद की कमी
जापानी सेना से पूर्ण सहयोग न मिल पाना
वायु सेना की अनुपस्थिति
और भारी राशन संकट
इन वजहों से आज़ाद हिंद फौज को पीछे हटना पड़ा और अंततः उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
हालाँकि, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यह कोशिश तत्काल सफल नहीं रही, परंतु इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई ऊर्जा और अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। यही वजह रही कि 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने में यह एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ।
सुभाष चंद्र बोस का विवाह – Subhash Chandra Bose Biography
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का विवाह 1937 में ऑस्ट्रिया की एमिली शेंकल से हुआ था। उनकी एक बेटी भी थीं, जिनका नाम अनीता बोस फाफ है। अनीता बोस फाफ, जो सुभाष चंद्र बोस की इकलौती संतान हैं, का जन्म 29 नवम्बर 1942 को वियना में हुआ था। वर्तमान समय में अनीता बोस एक जर्मन अर्थशास्त्री हैं और आज भी जीवित हैं।
मृत्यु और रहस्य – Subhash Chandra Bose Biography
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज भी देश के लिए एक अनसुलझी पहेली से कम नहीं है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, उनकी मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान हादसे में ताइवान में तब हुई थी जब वे जापान होते हुए मंचूरिया जा रहे थे। हादसे के बाद उन्हें अस्पताल भी ले जाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
हालाँकि, एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो मानता है कि नेताजी की मृत्यु विमान हादसे में नहीं हुई थी। उनका मानना है कि वे ‘गुमनामी बाबा’ के रूप में कई वर्षों तक जीवित रहे।
सरकारी दस्तावेज नेताजी की मृत्यु को विमान हादसा ही मानते हैं, लेकिन समाज का एक बड़ा वर्ग इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। आज भी नेताजी की मृत्यु का रहस्य जनता के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है।